Thursday - 11 January 2024 - 9:53 AM

कर्नाटक का नाटक मध्यप्रदेश में दोहरा पाएगी भाजपा?

कृष्णमोहन झा

मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार ने हाल में ही दंड बिधि बिल राज्य विधानसभा में मत विभाजन के जरिए पारित कराकर यह तो साबित कर दिया है कि विधानसभा के अंदर उसे स्पष्ट बहुमत हासिल है, परंतु भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के जो बयान आ रहे हैं ,उनसे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि कर्नाटक मैं कांग्रेस और जनता दल की गठबंधन सरकार के पतन के बाद राज्य की सत्ता में वापसी करने के लिए भाजपा की छटपटाहट ओर बढ़ने की स्थितियां निर्मित हो चुकी है।

पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता गोपाल भार्गव के बयानों का संदेश भी यही है।शिवराज सिंह चौहान ने यह उम्मीद व्यक्त की है कि मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार अपने ही अंतर विरोधों के कारण जल्द ही गिर सकती है। पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं कि भाजपा को कमलनाथ सरकार गिराने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास करने की जरूरत नहीं है। उसका तो गिरना उसी दिन तय हो गया था ,जिस दिन यह सरकार अस्तित्व में आई थी।

विधानसभा में विपक्ष के नेता गोपाल भार्गव के बयान का निहितार्थ भी कुछ अलग ही है। बस उनके कहने का लहजा कुछ अलग है और शायद यही लहजा उनकी एक विशिष्ट पहचान है। उन्होंने कहा कि दिल्ली से नंबर एक और नंबर दो की अनुमति मिल जाए तो कमलनाथ सरकार को गिराने में भाजपा कोई देर नहीं लगाएगी।

नेता प्रतिपक्ष पहले भी ऐसे बयान दे चुके हैं। एक बार उन्होंने यह तक कह दिया था कि जिस दिन हमें छींक आएगी उसी दिन राज्य की कमलनाथ सरकार का गिरना तय है। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बयानों से भी जब तब यही ध्वनि निकलती रही कि मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार को गिराने के लिए बस भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के एक इशारे की जरूरत भर है।

इन सारे बयानों में एक ही संदेश छुपा हुआ है कि कमलनाथ सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी और 5 साल के भीतर ही सत्ता में भाजपा की वापसी होना तय है।

ऐसे बयानों का उद्देश्य चाहे जो हो, परंतु इनसे यह तो स्पष्ट है कि भाजपा उस दिन की अधीरता से प्रतीक्षा कर रही है, जब कांग्रेस के कुछ विधायक पाला बदलकर उनके पक्ष में जाए या फिर कांग्रेस सरकार को समर्थन दें रही बसपा और निर्दलीय विधायक अपना समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दे। दोनों ही स्थितियों में कमलनाथ सरकार पर अस्थिरता का संकट गहरा सकता है। भाजपा तो इसी समय का बेसबरी से इंतजार कर रही है।

इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ को प्रदेश में सत्ता के एक से अधिक केंद्र होने की कड़वी हकीकत का भली-भांति एहसास है। इसलिए उन्हें विगत महीनों में कई बार समझौता वादी रुख अपनाने के लिए विवश होना पड़ा है और आगे भी उन्हें सरकार को निरापद बनाए रखने के लिए इसी राह पर चलना पड़ सकता है।

हालांकि कांग्रेस के नेता यह आत्मविश्वास भी व्यक्त करते है कि कर्नाटक में जो कुछ हुआ, उसकी संभावना मध्यप्रदेश में होने की दूर -दूर तक कोई संभावना नहीं है। भाजपा यहां कितनी भी कोशिश क्यों ना कर ले, लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिल सकती है। कमलनाथ सरकार अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा करेगी। भाजपा को ज्यादा खुश होने की कोई जरूरत नहीं है।

 

राज्य विधानसभा में एडवोकेट प्रोटेक्शन बिल पर मतदान का जो नतीजा रहा ,उसने भाजपा को सकते में डाल दिया है।भाजपा के दो विधायकों ने अपनी पार्टी की नाराजगी की परवाह न करते हुए इस बिल पर सरकार का साथ देकर मुख्यमंत्री को यह दावा करने का अवसर प्रदान कर दिया है कि उनकी सरकार के पास पहले से भी अधिक बहुमत है।

आश्चर्य की बात यह है कि उक्त बिल के पक्ष में मतदान करने वाले विधायक नारायण त्रिपाठी और शरद कोल ने बाद में मुख्यमंत्री के साथ उपस्थिति दर्ज कराने में भी कोई संकोच नहीं किया। इसमें भी शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि उक्त दोनों विधायक मुख्यमंत्री के प्रति वफादार बने रहेंगे। यह बात भाजपा के लिए चिंताजनक हो सकती है कि उसे यह अंदाजा भी नहीं लग पाया कि उसके दो विधायक मुख्यमंत्री के संपर्क में काफी दिनों से थे और इसकी भनक तक उसे नहीं लग पाई। निश्चित रूप से मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इससे राहत महसूस की होगी।

कर्नाटक में कुमारास्वामी सरकार के पतन के बाद तो राज्य में भाजपा नेताओं की तो कुछ इस तरह बांहे खिल गई थी कि वह 24 घंटे के अंदर ही राज्य में सत्ता परिवर्तन का स्वप्न देखने लगे थे। भाजपा भले ही उक्त दोनों विधायकों की निष्ठा परिवर्तन को महत्वहीन बता रही हो, परंतु अब उसे यह चिंता तो अवश्य हो रही होगी कि कहीं उनके कुछ और विधायकों को सम्मोहित करने में मुख्यमंत्री कमलनाथ कामयाब ना हो जाए।

शिवराज सरकार में महत्वपूर्ण मंत्री रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता नरोत्तम मिश्रा ने कांग्रेस पर तोड़फोड़ का आरोप लगाते हुए कहा कि भाजपा ने इस बारे में कभी नहीं सोचा था। उन्होंने कहा कि खेल कांग्रेस ने शुरू किया है तो खत्म शायद भाजपा करेगी। ऐसे बयानों से तो यही ध्वनि निकलती है कि भाजपा मध्यप्रदेश में सत्ता में वापसी के लिए तोड़फोड़ का सहारा ले सकती है।

दरअसल यह बयान भले ही राज्य के वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने अति उत्साह में आकर दिए हो, परंतु इन बयानों ने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए असहज स्थिति पैदा कर दी है। एक और भाजपा नीत राजग सरकार के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह लोकसभा में इन आरोपों का खंडन कर रहे हैं कि कर्नाटक में दल-बदल कराकर सरकार बदलने में उसका हाथ था और दूसरी ओर प्रदेश में भाजपा के वरिष्ठ नेता यह बयान दे रहे हैं कि केंद्र से नंबर एक और नंबर दो का आदेश मिल जाए तो हम 24 घंटे में कमलनाथ सरकार गिरा देंगे।

यह विरोधाभासी बयान भाजपा के लिए मुश्किल पैदा कर रहे हैं। शायद इसीलिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने कर्नाटक में कुमारास्वामी सरकार के पतन के बाद येदियुरप्पा को तत्काल ही सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के समक्ष पेश करने का आदेश नहीं दिया। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अपने ऊपर यह इल्जाम नहीं लेना चाहता है कि कुमारास्वामी की सरकार गिराने में उसकी मुख्य भूमिका थी। भाजपा नेताओं को इसीलिए यह बयान देना पड़ा की नंबर एक और दो वाले बयानों से पार्टी का कुछ लेना-देना नहीं है। भाजपा ऐसा कोई प्रयास नहीं करेगी , मध्य प्रदेश सरकार अपनी अंतरकलह की वजह से गिर जाए तो तो अलग बात है।

दरअसल जब सारे देश में भाजपा एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व के प्रति जन समर्थन में निरंतर वृद्धि हो रही हो ,तब भाजपा के चैन से बैठने की उम्मीद तब तक कैसे की जा सकती है जब तक कि देश के हर राज्य में उसकी सरकार का गठन न हो जाए। खैर भाजपा के मंसूबे अभी जो हो, लेकिन दल बदल के इस खेल को हतोत्साहित किए जाने की जरूरत है।

यही लोकतंत्र का तकाजा है। एक बार चुनाव जीतकर जो दल या गठबंधन सत्ता में आ जाए उसे अपना कार्यकाल पूरा करने का मौका मिलना ही चाहिए अन्यथा जिस दल के निर्वाचित प्रतिनिधि सत्ता के लालच में दलबदल करते हैं उन्हें नई सरकार में मंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए ,तभी दलबदल की इस प्रवृत्ति पर रोक लग सकती है। सबसे उचित तो यह होगा कि एक दल के चिन्ह पर चुनाव जीतने वाले जनप्रतिनिधि को 5 साल के भीतर दलबदल करने की अनुमति ही न हो तो इससे दलबदल पर कुछ रोक लग सकती है।

निर्वाचित प्रतिनिधियों को इस्तीफा देकर पुनः जनता के सामने जाना चाहिए लेकिन उस विधानसभा के कार्यकाल खत्म होने के बाद। क्या सारे दल इस बारे में एकमत होंगे। इस प्रश्न का उत्तर तो फिलहाल नहीं में ही दिया जा सकता है। एक बात तो तय है कि गोवा और कर्नाटक का नाटक बाकी राज्यों में देखने के लिए इस देश की जनता तैयार नहीं है। अगर इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए संविधान में आवश्यक परिवर्तन के लिए हम तैयार नहीं है तो हमें अपने महान लोकतंत्र पर गर्व करने का भी अधिकार नहीं है।

(लेखक डिज़ियाना मीडिया समूह के राजनैतिक संपादक है)

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