डा. उत्कर्ष सिन्हा
भारत की वर्तमान मोदी सरकार के दावों पर भरोसा करना अब काफी मुश्किल हो चला है, एक के बाद एक घोषणाएं तो होती है लेकिन धरातल पर उसकी प्रगति का आंकलन नहीं होता. लेकिन इस बार एक ऐसा विषय है जिसका भारत की सुरक्षा से सीधा और गहरा सम्बन्ध है, दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतना महत्वपूर्ण विषय होने के बाद सरकारी तंत्र की नाकामी और कमजोर इक्षाशक्ति ने इसे हाशिये पर डाल दिया है.
मेक इन इंडिया की घोषणा के समय एक महान उम्मीद जगी थी कि भारत अपने रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करेगा, आयात निर्भरता कम होगी और देश की सुरक्षा आवश्यकताएं घरेलू उत्पादन द्वारा पूरी होंगी। लेकिन यह योजना छह साल पहले शुरू हुई, फिर भी बड़े रक्षा प्रोजेक्ट्स की शुरुआत नहीं हो पाई, जिससे यह सवाल उठता है कि डिफेन्स सेक्टर ने मेक इन इंडिया ने वास्तव में क्या हासिल किया है।
मेक इन इंडिया कार्यक्रम की मूल भावना थी कि भारत रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भर बने। देश की सैन्य ताकत बढ़ानी हो या नई तकनीक विकसित करनी हो, इसका लक्ष्य था कि इन सब कामों के लिए हमारा देश खुद सक्षम हो। सुरक्षा बलों के लिए आवश्यक उपकरण, हथियार, वाहन और विमान स्थानीय उद्योग ही बनाएंगे, जिससे आयात पर निर्भरता कम होगी और रक्षा उत्पादन में स्वदेशीकरण होगा।

लेकिन छह वर्षों के दौरान जो स्थिति नजर आई, वह भयंकर निराशाजनक रही। प्रमुख मेक इन इंडिया डिफेंस प्रोजेक्ट्स जैसे कि नई पीढ़ी के स्टेल्थ पनडुब्बी, हल्के उपयोगिता हेलीकॉप्टर, इन्फैंट्री कॉम्बैट व्हीकल, मल्टी-रोल लड़ाकू विमान आदि न तो शुरू हो सके और न ही उन्हें सुरक्षा बलों तक पहुंचाने का रास्ता साफ हो पाया। लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये के निवेश के लाभ अभी तक धरातल पर नहीं उतर सके। यह विफलता दर्शाती है कि योजना और नीतिगत घोषणाओं के बीच व्यवहार में गहरा अंतर है।
अंग्रेजी अख़बार टाईम्स आफ इंडिया की एक खबर बताती है कि नए जेनरेशन स्टेल्थ सबमरीन, माइन्सवीपर, लाइट यूटिलिटी हेलिकॉप्टर, इन्फैंट्री कॉम्बैट व्हीकल, ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट और फाइटर जेट जैसे लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट सालों तक केवल फाइलों में घूमते रहे और कॉन्ट्रैक्ट साइन ही नहीं हो पाए। नौकरशाही की जटिल प्रक्रियाएं, वाणिज्यिक–तकनीकी पेच, और राजनीतिक फॉलो-थ्रू की कमी इन देरी की मुख्य वजहों के रूप में सामने आईं। रणनीतिक साझेदारी (SP) मॉडल, जिसे निजी सेक्टर को फाइटर जेट, सबमरीन और टैंकों जैसे सिस्टम बनाने में साझीदार बनाने के लिए तैयार किया गया, खुद इतनी बार संशोधन और विवादों से गुज़रा कि कई अहम प्रोजेक्ट नीति तय होने का इंतज़ार करते–करते थम गए। हेलिकॉप्टर और सबमरीन प्रोग्रामों में यह अनिश्चितता सबसे ज़्यादा दिखी, जहां तकनीकी मूल्यांकन, इंडिजेनाइज़ेशन लेवल और सिंगल-वेंडर स्थिति पर सवालों ने फाइनल फैसले टाल दिए।
सरकार ने डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रोसीजर में बदलाव, FDI उदारीकरण, ऑफ़सेट गाइडलाइंस में सुधार और दो डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉरिडोर जैसे कदमों की घोषणा तो की, लेकिन इनका परिणाम शुरुआती वर्षों में बड़े प्लेटफॉर्म प्रोजेक्ट्स के रूप में सामने नहीं आ सका। कई विशेषज्ञों का मानना है कि नीतिगत घोषणाओं और कॉन्ट्रैक्ट साइन करने की गति के बीच यह गैप, मेक इन इंडिया की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़ा करता रहा।
इस विफलता के पीछे कई कारक जिम्मेदार हैं जिनमे डिफेंस प्रोक्योरमेंट में लंबित मंजूरी, विभिन्न विभागों में संचार के अभाव और प्रक्रियाओं में मिलीभगत कारण बनीं योजनाओं को समय पर मूर्त रूप न देने की कमजोरी प्रमुख रही जिसका सबसे ख़राब असर हमारी सेनाओं पर पड़ा। सुरक्षा बलों को तत्काल जरूरत पूरी करने के लिए पुराने उपकरणों पर निर्भर रहना पड़ा, जो हथियारों के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करता रहा। इससे न केवल संचालन संबंधी जोखिम बढ़े, बल्कि तकनीकी पिछड़ापन भी बना। जब पड़ोसी देशों की सैन्य ताकत तेजी से विकसित हो रही है, तब भारत की अधूरी तैयारी उसकी सामरिक स्थिति को कमजोर करती है।
राजनीतिक तौर पर भी यह सवाल उठता है कि जब मेक इन इंडिया को देश के लिए एक रणनीतिक अभियान के रूप में प्रचारित किया गया था, तब इतने वर्षों बाद एक भी बड़ा प्रोजेक्ट शुरू न हो पाना नीति और कार्यान्वयन के बीच भारी भेद का संकेत है। इससे जन विश्वास भी कमजोर होता है और रणनीतिक दृष्टि से भारत की शंघाई या अन्य वैश्विक मंचों पर विश्वसनीयता पर भी प्रभाव पड़ता है।
छह वर्षों की धीमी प्रगति और आलोचनाओं के बाद सरकार ने डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रक्रियाओं में बदलाव किए हैं। नई डिफेंस एक्विजिशन पॉलिसी (DAP 2020) लाई गई, जिसमें निजी क्षेत्र को ज्यादा शामिल करने, विदेशी निवेश को बढ़ावा देने और स्वदेशी निर्माता को ताकत देने की व्यवस्था की गई है।
सामरिक साझेदारी मॉडल को स्थिरता देने का प्रयास हुआ है और सरकार ने डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉरिडोर बनाने जैसी पहलें भी शुरू की हैं ताकि डीएमआईटी (डिफेंस मैन्युफैक्चरिंग) की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता बढ़े। इन सुधारों के कारण रक्षा निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो भारत के रक्षा उत्पादन में क्षमता बढ़ने का संकेत है।
मेक इन इंडिया के तहत बड़ी चुनौतियों को पार कर सफल होने की राह अभी बाक़ी है। केवल घोषणाएं और नीति दस्तावेज पर्याप्त नहीं रहेंगे, महत्वपूर्ण यह होगा कि तेज़ और पारदर्शी क्रियान्वयन हो। मेगा प्रोजेक्ट जैसे नई पीढ़ी की पनडुब्बियां, फाइटर जेट्स, हेलिकॉप्टर आदि को समय सीमा के भीतर उत्पादन कर सेना के लिए उपलब्ध कराना होगा।
मेक इन इंडिया पहल का वास्तविक मापन तभी होगा जब भारत अपने रक्षा उत्पादन को आयात के चैनलों से मुक्त कर सके। छह वर्षों की देरी और छोटे सफलताओं के बावजूद इस पहल की बड़ी भूमिका हो सकती है, बशर्ते उससे जुड़े सभी हितधारक गंभीरता से नीतिगत सुधारों और क्रियान्वयन को अपनाएं। यह विषय केवल आर्थिक या औद्योगिक विकास का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुत्व का मामला भी है।
भारत को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि मेक इन इंडिया डिफेंस प्रोजेक्ट केवल सिद्धांतों या घोषणा मंत्रालयों तक सीमित न रहे, बल्कि एक दृढ़ कदम के रूप में स्थापित हो, जिससे देश वैश्विक रक्षा उत्पादन के मानचित्र पर एक शक्तिशाली निर्माता के रूप में उभर सके। यही वह राह है जो भारत को आत्मनिर्भरता की मंजिल तक ले जाएगी और उसकी सैन्य क्षमता में सुधार लाएगी।
स्पष्ट है कि ठोस नीतिगत फैसलों, गुणवत्ता मानकों पर कड़ाई, और तेज़ तथा पारदर्शी क्रियान्वयन के बिना मेक इन इंडिया का सपना अधूरा रहेगा। इसीलिए, अब समय है हर स्तर पर जवाबदेही और निरंतर सुधार की, ताकि भारत का डिफेंस सेक्टर वास्तविकता में आत्मनिर्भर और विश्वसनीय बन सके।
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